हिन्दी व्याकरण भाग ३ (HINDI GRAMMAR PART 3)

भावार्थ (Substance)

सारांश’ की तरह ‘भावार्थ’ भी मूल अवतरण का छोटा रूप है, किंतु ‘भावार्थ’ लिखने की रीति ‘सारांश’ की रीति से भिन्न है। वास्तव में, ‘भावार्थ’ की विधि ‘गागर में सागर’ भरने की एक क्रिया है। यहाँ मूलभाव का कोई भी भाव या विचार छूटना नहीं चाहिए। विषय को या बात को बढ़ा-चढ़ाकर कहने या लिखने की यहाँ भी आवश्यकता नहीं; पर भावार्थ में भावों का पदान्वय भी नहीं होना चाहिए।

यद्यपि भावार्थ की लम्बाई-चौड़ाई की अन्तिम सीमा नहीं बाँधी जा सकती, तथापि आशय या भाव के प्रतिकूल उसे मूल अवतरण का कम-से कम आधा तो होना ही चाहिए। इसमें मूल के सभी प्रधान और गौण भाव आ जाने चाहिए। भाषा सरल और अपनी होनी चाहिए। ‘सारांश’ में केवल प्रधान भाव ही रहते हैं। किंतु ‘भावार्थ’ में छोटे-बड़े सभी भावों का समावेश किया जाता है। सच तो यह है कि ‘भावार्थ’ ‘सारांश और ‘व्याख्या’ के बीच की चीज है।

‘भावार्थ’ के सम्बन्ध में एक विद्वान का कथन है- ”भावार्थ संक्षिप्त और स्पष्ट हो। इसे व्याख्या के रूप में नहीं होना चाहिए। केवल अन्वयार्थ (paraphrase) को भी भावार्थ नहीं समझना चाहिए।”

इस उद्धरण में तीन बातें स्पष्ट हैं- (1) भावार्थ संक्षिप्त होना चाहिए (2) भावार्थ व्याख्या के रूप में नहीं होना चाहिए (3) भावार्थ में अन्वयार्थ भी नहीं होना चाहिए

भावार्थ की प्राथमिक विशेषता उसकी संक्षिप्तता है। हम थोड़े में सब कुछ कह जायें- यही इसकी पहली शर्त है। फिर, ‘भावार्थ’ संक्षेपण (precis) से बिलकुल भित्र है।

भावार्थ के लिए आवश्यक निर्देश

भावार्थ के लिए निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए-

(1) मूल अवतरण दो-तीन बार ध्यानपूर्वक पढ़िए और विचारों को रेखांकित कीजिए। व्यर्थ बातों या शब्दों को हटा दीजिए। 

(2) व्यर्थ बातों या शब्दों को हटा दीजिए।

(3) रेखांकित वाक्यों और शब्दों को मिलाकर सार्थक वाक्य बना लीजिए। रिक्त स्थानों की पूर्ति के लिए कुछ बाहरी शब्द भी लिये जा सकते हैं। इस प्रकार, भावार्थ की रुपरेखा तैयार हो जायेगी। 

(4) व्याख्या की तरह विषय की लम्बी-चौड़ी व्याख्या करने या प्रत्येक पंक्ति या वाक्य का विस्तार करने या अपनी ओर से टीका-टिप्पणी करने की कोई आवश्यकता नहीं है। 

(5) भावार्थ की भाषा स्पष्ट और सरल हो। मूल अवतरण में दिये गये शब्दों का ज्यों-का-त्यों प्रयोग अपेक्षित नहीं है। 

(6) आलंकारिक शब्दों या भाषा का प्रयोग नहीं होना चाहिए। 

(7) भावार्थ में भावों का पदान्वय नहीं होना चाहिए। समूचे अवतरण को पढ़ लेने के बाद सोचना चाहिए कि मूल के सभी महत्त्वपूर्ण और आवश्यक भाव आ गये या नहीं। यदि कोई विचार छूट गया, हो तो यथास्थान समाविष्ट कर देना चाहिए।

तात्पर्य यह है कि गद्यांश या पद्यांश में आये विचारों को संक्षेप में, सरल भाषा में, लिख देने के प्रयास को ‘भावार्थ कहते है। इसमें खण्डन-मण्डन या टीका-टिप्पणी की कोई गुंजाइश नहीं रहती। परीक्षार्थी को अपनी ओर से एक भी बात घटाने या बढ़ाने का अधिकार नहीं है।

यहाँ पर उदाहरण दिया जा रहा है-

मूर्ति तैयार हुई। मूर्तिकार उसे बाजार ले गया। पर दुर्भाग्य! वह न बिकी। अब कौन मुँह लेकर घर लौटे। आखिर घर तो उसे लौटना ही था। उसे देखते ही उसका बच्चा ‘बताशा-बताशा’ चिल्लाता हुआ दौड़ा और उसके आगे हाथ फैला दिये। मूर्तिकार के मुँह से कोई शब्द न निकला। वह बच्चे को अपनी गोद से चिपकाकर रोने लगा। वह सोचने लगा- जिसने धनवानों को बनाया, जिसने प्रकृति पर अधिकार दिया, जिसने जमीन का बंटवारा किया, क्या उसकी बुद्धि इतनी छोटी हो गयी कि कुछ लोग फूलों की सेज पर आराम से सोयें और कुछ लोग पसीने के रूप में दिन-रात खून बहाने पर भी मुट्ठीभर चने तक न पायें!

भावार्थ – आज पूँजीवाद का भयानक रूप देखने को मिलता है। कुछ लोग बिना हाथ-पैर डुलाये मालपुआ चाभते हैं और सुख का जीवन बिताते है और कुछ लोग मेहनत करके भी भरपेट अन्न नहीं पाते। आज दौलत के बाजार में कलाकार को कोई नहीं पूछता। कलाकार भूखा मरता है और अपने बच्चे को बताशा भी खरीदकर नहीं दे सकता।

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